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मंगलवार, 23 अक्टूबर 2012

अधूरे सपनों की कसक (16)

               ये सपने  भी कितने सीमित होते हैं क्योंकि एक लड़की को अपने सपने को हम सब के साथ मिलकर ही देखने पड़ते  हैं और  सपनों को  पूरा करने  के लिए भी  समझौते करने पड़ते हैं . वह उस में भी खुश है  - फिर  भी उसे  न जाने क्यों अधूरे होने के दंश से गुजरना पड़ता है . क्या सिर्फ इस लिए की वह नारी के सपने हैं - हाँ यहाँ नारी के देखे सपने और पुरुषों के देखे सपने में अंतर होता है और उस अंतर से ही पता चलता है की अभी भी ये खाई दोनों के बीच पाई जाती है। 

                        आज अपने सपने के साथ है पल्लवी सक्सेना .





                          
               जैसा कि  सभी ने लिखा है कि  हर इंसान सपना देखता है . सपने के बिना जीवन संभव ही नहीं है। इसी तरह से मैंने भी कई सपने देखे और आज भी देखती हूँ . मगर आज सोचती हूँ तो ऐसा लगता है कि  शायद अब मेरी जिन्दगी में कोई ऐसा सपना रहा ही नहीं जिसके पूरे होने की कोई आस बची हो अर्थात जो सपने है वो यदि पूरे हो गये तो ठीक, न भी हुए तो अब उतना मलाल नहीं होता।  मेरी मम्मी बताती है कि  जब मैं बहुत छोटी थी तब तक एक  पुलिस अफसर से  बहुत प्रभावित थी जो कि  एक महिला थी जिनका नाम था आशा गोपाल ( वैसे मैं एक बात  बताती चलूं कि  आशा गोपाल का नाम मैंने भी बहुत पढ़ा था और तो और उस जगह के अपराधी उनसे थर थर कांपते थे। )  जो एस पी के पद पर थीं। मगर उन दिनों मुझे उनके पद से क्या वास्ता मुझे तो उनका पहनावा बहुत आकर्षित करता था , जिसे देखा कर मैं हमेशा यही कहा करती थी कि  मुझे इन जैसा ही बनना  है। फिर धीरे धीरे बड़े होने के साथ मैं उन्हें भूल गयी और आम बच्चों की तरह अपने स्कूल की अपनी अध्यापिकाओं को देख कर मन में अध्यापक बनने का सपना जन्म लेने लगा। 
                         फिर और बड़ी हुई तो नाट्य का चस्का लगा क्योंकि मेरी माँ  को शास्त्रीय नृत्य का बहुत शौक था , मगर मेरे पिता को पसंद न होने के कारण  उन्हें अपना यह शौक मारना  पड़ा था और वह अपना यह सपना  मेरे अन्दर तलाशना  चाहती थी। तो मैंने भरतनाट्यम सीखा। वैसे मेरी इच्छा कत्थक सीखने की ज्यादा थी किन्तु उन दिनों घर के आस पास उसकी क्लास नहीं मिली और घर से दूर जाने की अनुमति थी नहीं। इसी लिए मैंने भरतनाट्यम को चुना लेकिन वक्त को शायद यह भी मन्जूर  नहीं था इसी लिए एक वर्ष बहुत अधिक बीमार पड़ी जिससे मेरा यह कोर्स अधूरा रह गया . मगर मेरी नृत्य में रूचि कम नहीं हुई , जिसके चलते लोक संगीत और फिल्मी गीतों ने मुझे बहुत प्रभावित किया , इतना कि  लोक नृत्य सिखाने के लिए क्लास घर पर ही खुल गयीं और दुर्गा पूजा और गणेश उत्सव जैसे कार्यक्रमों  में हिस्सा लेने  के लिए मोहल्ले के बच्चे मेरे पास आने लगे फिर धीरे धीरे कॉलेज की लड़कियाँ भी और इंतना ही नहीं कुछ महिलायें भी।  तब मुझे ऐसा लगाने लगा कि  बस इसी को अपना मुकाम बनाना है। इन सब में मेरे आस पास वालों ने मुझे बहुत प्रोत्साहित  किया .
                       फिर मैंने  दिल्ली में न्यूज रीडिंग का डिप्लोमा भी किया . कई चैनलों के आफिस में चक्कर काटे लेकिन वहां भी नया होने के कारण  कोई काम नहीं बना क्योंकि हर क्षेत्र में लोगों को सबसे पहले अनुभवी लोगों की तलाश होती है। नए लोगों के साथ काम करने का साहस बहुत कम लोग कर पाते  हैं, सो वहां भी बात न बन सकी फिर वही ढाक  के तीन पात पर जिन्दगी का क्रम चलने लगा और आज भी चल रहा है। मगर अंत मैं इतना ही कह सकती हूँ नृत्य से मेरी आत्मा जुडी है और आज भी नृत्य सीखने और सिखाने के लिए उतनी ही उत्सुक हूँ, जितनी  अपने कालेज के दिनों में रहा करती थी क्योंकि छोटे छोटे बच्चों से मुझे हमेशा  बहुत लगाव रहा है, उनसे घिरे रहना मुझे हमेशा से पसंद रहा है खासतौर पर नृत्य को लेकर क्योंकि उनको नृत्य सिखाने का मेरा अपने आप में एक बहुत अद्भुत अनुभव रहा  है।

7 टिप्‍पणियां:

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

badhiya likha hai... kuch sapne saath chalte hain

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

kuchh sapne se achchi reality hoti hai...:)
try to be happy:)

रश्मि प्रभा... ने कहा…

माँ दुर्गा की कृपा यूँ हीं बनी रहे ...

महेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा…

बढिया,

विजयादशमी की बहुत बहुत शुभकामनाएं

Rajesh Kumari ने कहा…

आप अपना शोंक अभी भी कायम रखिये अपने अन्दर के कलाकार को मारना नहीं चाहिए और कला किसी चीज की मोहताज नहीं होती बहुत अच्छा लगा आपके विषय में जानकार

Anju (Anu) Chaudhary ने कहा…

अब भी कुछ कदम आगे बढ़ाइए...हो सकता है अब सपनों के पूरा करने का सही वक्त हो ....

Pallavi saxena ने कहा…

मौका मिला तो ज़रूर फिर कुछ करूंगी इस क्षेत्र में दोस्तों फिलहाल होंसला अफजाई के लिए आप सभी का आभार....