मैंने एक कहानी पढ़ी - लिखने वाला एक युवा लेखक लेकिन उसने जो भी लिखा इतना यथार्थथा कि खुद मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि अब कल यही उत्तर मिलने वाला है। कहानी में एक युवा पुत्र नेअपने माता - पिता को एक पत्र लिखा था, उनके इस बात की दुहाई देने के लिए कि मुझे तुम्हारी अब जरूरत है , मेरे पास पैसा बहुत है और विदेश से नौकरी छोड़ कर यहाँ आ जाओ।
लिखने वाले की कलम की धार देखने काबिल थी, जो जो तथ्य उसने प्रस्तुत किये उससे उसनेअपने ही माता पिता को कटघरे में खड़ा कर दिया जिसके लिए कोई सफाई न मैं पेश कर सकती हूँ और न वह माँबाप कर पाए होंगे। वह भावी पीढ़ी के लिए एक कटु सत्य है और उसको झेलना ही होगा। आज की पीढ़ी जो जीवनस्तर, आधुनिक सुख सुविधाओं और सोसायटी में अपनी जगह बनाने के लिए जिस तरह से भाग रही है औरजीवन को एन्जॉय करना चाह रही है , उसके लिए बहुत कुछ खो भी रही है।
अगर हम अपनी पीढ़ी की बात करें तो हमारी कामकाजी होने के बाद भी अपने मध्यमवर्गीयपारिवारिक मूल्यों का वहन करती रही। काम के बाद बच्चों को अपने सीने से लगाकर सुलाया है। घर पर नहीं रहीतब भी आया के आँचल में नहीं दिया। संयुक्त परिवार के परिवेश में जिया । इसके लिए हमने अपने तन, मन औरधन तीनों से कीमत भी चुकाई लेकिन बच्चों के लिए 'घर' का अर्थ 'घर ' ही रहने दिया। माँ नहीं है तो बाबा दादी हैं , ताई या चाची हैं। उनको खाना निकाल कर तो दिया। स्कूल से आने पर अपने पास सुला तो लिया। नहीं तो अपनेभाई बहनों के संग सुरक्षित घर के माहौल में बच्चे रहे।
आज के बच्चे भी वही दिल लेकर पैदा होते हैं और उनके दिल भी हमारे बच्चों के तरह से ही धड़कतेहैं। वे भी चाहते हैं कि कुछ पल माँ के साए में गुजरें। ममता के अर्थ नहीं बदल जाते - हमारी सोच ने उसे बदलदिया है। आज की युवा पीढ़ी अर्थ के पीछे दौड़ रही है। अधिक से अधिक कामना और सुख सुविधाओं को जुटानायद्यपि वह ये सब सिर्फ अपने लिए नहीं कर रही है बल्कि बच्चों के लिए भी कर रही है। प्रतिस्पर्धा के इस दौर मेंअच्छे स्कूल में पढ़ाना , आधुनिक जीवन मूल्यों के अनुसार बच्चों के अलग बेडरूम को अच्छे से सजाना औरउनके जरा सा बड़ा होते ही अलग कमरे में डाल देना। चाहे बच्चा रात में डर के मारे सो न पाए लेकिन उसे पाश्चात्यसंस्कृति के अनुसार जीना है। फिर हम भारतीयता कि दुहाई क्यों देने लगते हैं?
नौकरी के चलते छुट्टी के ख़त्म होते ही बच्चे को डे केयर सेंटर में छोड़ना होता है क्योंकि घर मेंकिसी को रहना नहीं होता है और आया के सहारे छोड़ने से अच्छा है कि बच्चा कई बच्चों के साथ रहे। सुबह जबबच्चा सोना चाहता है तब ऑफिस जाने की जल्दी में जल्दी से बच्चे को कभी कभी तो फ्रेश कराये बिना ही सेंटर मेंछोड़ दिया जाता है और बच्चा कई बार रोता रह जाता है। बच्चे को आया को पकड़ा कर माँ चल देती है. ये माँ केलिए मजबूरी ही सही लेकिन बच्चे के दिल में माँ के प्रति पलने वाला प्यार कहीं खोने लगता है। वह उसके पासरहता ही कितना है? माँ बाप को लगता है कि बच्चे को अच्छे से अच्छा मुहैया करवा रहे हैं तो उसको कोई भीशिकायत नहीं होनी चाहिए। लेकिन अगर माँ का आँचल और बाप का साया ही न मिला तो बच्चा निर्जीव चीजों केसाथ दोस्ती कर अपने संवेदनाओं को उनके साथ ही जोड़ लेता है और फिर अगर माँ उसके खिलौने कहीं उठा कररख भी दे तो वह रो रो कर उनकी मांग करता है तब उसको माँ नहीं अपने लिए वही जरूरी लगने लगते हैं।
रात में कभी कभी माँ पापा को पार्टी में जाना होता है और वे बच्चे को घर में बंद करके चल देते हैंक्योंकि पार्टी की औपचारिकता के अनुसार बच्चे वहाँ नहीं ले जा पाते हैं । एक वह अवसर भी बच्चों के सानिंध्य का छिन जाता है। उस नन्हे से मन की आत्मा कितनी आहत हुई ये हम नहीं समझ पाते हैं।
-हम बढ़िया से बढ़िया सामान मुहैया कराते हैं , हम कमाते किसके लिए हैं? इन्हीं बच्चों के लिए न।
-तुम्हारे किसी और दोस्त के पास हैं इतनी सारे खिलौने या फिर ऐसे समान - शायद नहीं लेकिन उनके पास कुछऔर होता है जो उसके पास नहीं होता है।
अगर कहें कि ये उनकी मजबूरी होती है , दोनों न कमायें तो खर्च कैसे उठायें? जीवन स्तर अच्छाकैसे बनायें? अपने फ्रेंड सर्किल में अपनी प्रतिष्ठा कैसे बना पायेंगे? पर इसकी कीमत बाल मन चुका रहा होता है। जब उसको माता पिता का प्यार नहीं मिला तो उसके मन में उनके प्रति प्यार कहाँ से आएगा? लगाव कैसे होगा?
बच्चे थोड़े से बड़े होते हैं , टी वी, कंप्यूटर, आई पोड से सुसज्जित कर दिए जाते हैं और फिर उन्हें किसी की जरूरतभी नहीं रहती है। अपने नेट से बनाये फ्रेंड सर्किल और अपनी बातें शेयर करने के लिए उनके पास बहुत से विकल्पआ जाते हैं फिर उन्हें किसी की जरूरत भी नहीं होती है। होस्टल, अपनी पढ़ाई और फिर कैरियर के लिए कोशिशकरना उनको और अधिक दूर कर लेता है।
अब कहीं उनके लिए अपनी मित्र मंडली ही सबसे बड़ी सहारा और दिशा देने वाली होती है। जॉबलगने पर छुट्टियों में वे घर आने कि बजाय घूमने के लिए निकल जाना अधिक पसंद करते हैं। क्योंकि उनकोलगता है घर जाने पर कोई दोस्त तो मिलेगा नहीं घर में रहकर करेंगे क्या? इसलिए बेहतर है कि टूरिस्ट प्लेस परजाकर छुट्टियाँ बिता आते हैं।
जब उन्हें हमारे साथ की जरूरत थी हम पैसे के पीछे भागते रहे और साथ ही अपनी सोसायटी मेंजगह बनाने के लिए हमारी गतिविधियाँ भी जारी रहनी चाहिए थी उसमें बच्चों के लिए कोई जगह नहीं थी। अबबच्चों के दिल में हमारे लिए कोई जगह नहीं है। उस बच्चे का एक उत्तर बहुत अच्छा लगा था। 'पापा पैसा आजमेरे पास भी बहुत है लेकिन इस पैसे से प्यार नहीं मिलता । जैसे आपने मेरे लिए सारी आधुनिक सुविधाएँ खरीदकर घर में कैद कर दिया था । मैं आप लोगों को और पैसे भेज देता हूँ। जो आपको चाहिए हो लेटेस्ट फैशन का लेलीजिये। लेकिन हमारे पास वह प्यार है ही नहीं हो हमें आपसे जोड़ सके। मार्था ने नौकरी छोड़ दी है क्योंकि वहअपने बच्चे को अधिक महत्वपूर्ण समझती है। पापा वह तो विदेशी है लेकिन उसके अन्दर ममता और प्यार दोनोंही है। ये प्यार हम बच्चे को किसी भी कीमत पर खरीद कर नहीं दे सकते हैं। हम तो आपको वही दे सकते हैं जोआपने हमें दिया। हम कहाँ से लायें जो हमें आपसे मिला ही नहीं। आशा करता हूँ कि आप मुझे क्षमा कर देंगे। '
आने वाली पीढ़ी को दोष किस बिला पर दें। अगर बच्चा माँ के आँचल की गर्मी महसूस नहीं कर सकातो फिर आज वह कशिश कहाँ से लाएगा? अभी समय है हमें इसके विकल्प खोज लेने चाहिए और सोचना चाहिएकि अगर हमें आज ये उत्तर मिल रहा है तो फिर हमने अपने माता पिता को तो आँचल की छाँव में पालने के बाद भीकुछ नहीं दिया।
मंगलवार, 26 जुलाई 2011
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
12 टिप्पणियां:
बेहद जटिल प्रश्न ……………लेकिन सच को लिये हुये।
बहुत प्रेरक पोस्ट!
kahani kuchh mere jeevan se judi hui......par karen kya?
bachcho ko crech me rakhna.......kabhi kabhi darwaja band kar ke andar hi rahne dena........par kar kya sakte hain! ...
रेखा दी .....आज आपका लेख पढ़ कर बहुत पुरानी बात याद आ गई
जब मै दूसरे बेटे के माँ बनी तो उम्र थी ...२५ साल...बच्चे दोनों छोटे
कभी कही जाना होता तो सास मना कर देती थी बच्चों को रखने से
तो दोनों को अपने साथ..रख...मै चल देती थी अपनी मंजिल की तरफ
उस दिन के बच्चे साथ जुड़े ....तो आज तक साथ है
आज मुझे अपनी सास की याद आ गई ...की .बुरी बनके वो कितना
अच्छा सबक देकर गई ....वो ममता जो कभी ..मै भी बच्चों से छीन सकती थी
उनकी बदौलत ...आज हम सब एक साथ है ..सयुंक्त परिवार के रूप में
आपका आभार ....ऐसे लेख सबके सामने रखने के लिए
बहुत ही गंभीर विषय को उठाया है आपने ....इस आधुनिक युग में परिस्थिति ही कुछ ऐसी हो गई है
मुकेश तुमने सही कहा है लेकिन हमें बच्चों को मिलने वाले प्यार को आधुनिकता की बलि नहीं चढ़ा देनी चाहिए . उन्हें शेष समय इतना प्यार दीजिये की वे उस प्यार के लिए तरसें नहीं. बेजान चीजों में उसे न खोजें और खुद भी संवेदनाओं को न खो दें.
बहुत ही गंभीर विषय उठाया है आपने!
प्रेरक पोस्ट के लिए आभार!
प्रश्न की जटिलता की कोई बात नही है, रेखा जी ने एक कड्वी सच्चाई की भावनात्मक सँवेदना को एक साश्वत स्वर दिया है,जो देखा हुआ, भोगता हआ सनातन सत्य जान पडता है.
प्रश्न की जटिलता की कोई बात नही है, रेखा जी ने एक कड्वी सच्चाई की भावनात्मक सँवेदना को एक साश्वत स्वर दिया है,जो देखा हुआ, भोगता हआ सनातन सत्य जान पडता है.
kehna bohot kuch chahti hu par samajh nahi aa raha kaise kahu, duvidha mei hu ke aisi maa bhi hoti h jo sirf party mei jane ke liye apne bache ko room mei band kar sakti hai, rekha di aaj ki mehngai ki wajah se husband wife dono ka hi kaam karna jaruri hai is baat se to aap sab sehmat honge hi, kya hum job karne wali maa aapne bacho ko sach mei wo pyar nahi de pati, mera bacha 5 mahine ka h or mai job karti hu, please mujhe suggest kare , is padav mei mai kaise apni naukri or bacha sambhalu waise uski dadi ghar mei uska khyal rakhti h
मेरी सोच - अपने जो लिखा वह आज का सच है नौकरी आज दोनों की मजबूरी है लेकिन हमें उसके विकल्प भी तो सोचने होंगे.. इसके लिए मैं एक और पोस्ट लिख रही हूँ. उसेदेखें.
sahi kaha di tumne:)
एक टिप्पणी भेजें