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शनिवार, 6 अक्तूबर 2012

अधूरे सपनों की कसक (1 )

अधूरे   सपनों की कसक (1)


                     नींद में देखे गए सपने तो मिथ्या होते है , आँख खुली और वे भी ओझल हो गए लेकिन कुछ सपने हम जागती आखों से भी देखते हैं और वे सपने हमारे जीवन की दिशा को निर्धारित करने वाले होते हैं . फिर भी जीवन के प्रारंभिक चरण में देखे गए सपने मन मष्तिष्क पर ऐसे बैठे होते हैं की उन्हें पूरा करने के लिए प्रयास तो हम करते हैं लेकिन फिर भी कभी कभी वे हमारे वश में  रह जाते हैं और हम उनके टुकड़ों को लेकर दूसरी दिशा में चल देते हैं। ऐसा लगभग सभी के साथ होता होगा कुछ लोगों के साथ न भी हुआ होगा , कुछापने सपनों के अवशेष को अपने दिल में छिपाए ही रहना चाहते हैं। फिर चलिए आज रूबरू होते हैं साधना वैद जी के सपने से ---

 साधना वैद


वो सपना जो साकार न हो सका

कैसी दुखती रग छेड़ दी है आपने आज ! हर रोज ही तो ये आँखें ना जाने कितने सपने देखती हैं और हर रोज ना जाने कितने सुकुमार सपने साकार होने से पहले ही काल कवलित हो जाते हैं ! कुछ इतनी गहरी और स्थाई टीस देकर जाते हैं कि जीवन भर के लिये वे ज़ख्म हरे ही रह जाते हैं और कुछ इतनी खामोशी से चले जाते हैं कि उनके टूटने की आवाज़ तक सुनाई नहीं देती !
वह सपना जिसके साकार न हो पाने का दर्द समय के इतने लंबे अंतराल के दौरान तिल भर भी कम नहीं हो सका वह मैंने अपने कैरियर के सन्दर्भ में देखा था ! बच्चों के लिये सबसे बड़े आदर्श उनके माता-पिता होते हैं ! माँ का नाम अपने समय के प्रसिद्ध साहित्यकारों में सम्मान के साथ लिया जाता था और वे उन दिनों प्रचलित कवि सम्मेलनों में मंच पर सुशोभित कवियों में एक परिचित नाम हुआ करती थीं ! बाबूजी न्यायाधीश के पद पर आसीन थे ! वे एक बहुत ही रौबदार एवं आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी थे ! काला कोट, सफ़ेद पतलून, टाई और हैट लगा कर जब वे रास्ते पर निकलते थे तो लोग अदब से सर झुका कर सामने से हट जाया करते थे ! उनका यह सम्मान और रुआब मुझे बहुत चमत्कृत करता था ! और तभी से मन में इस सपने ने आकार ले लिया था कि मैं भी बड़ी होकर बाबूजी की तरह जज ही बनूँगी !
हमारा एक छोटा सा परिवार था उन दिनों ! माँ, बाबूजी, मेरी बड़ी दीदी, मेरे बड़े भाई और स्वयं मैं ! बाबूजी की लाड़ली बेटी होने के कारण मैं अक्सर उनके साथ कोर्ट चली जाती थी और उनके चैंबर में बड़ी सी आरामकुर्सी पर लेटे-लेटे या तो चन्दा मामा, नंदन, पराग आदि पढ़ती रहती थी या फिर कागजों पर उन दिनों प्रचलित लाल नीली पेंसिलों से आड़ी तिरछी लकीरें खींच चित्रकला का शौक पूरा किया करती थी ! चैंबर से सटे हुए बड़े से हॉल में बाबूजी का कोर्ट रूम हुआ करता था जहाँ ऊपर डायस पर एक बहुत बड़ी सी मेज़ के साथ बाबूजी की कुर्सी होती थी ! मेज़ पर ढेर सारी फाइलें, क़ानून की किताबें, कलमदान, ढेर सारे होल्डर्स, अर्धचंद्राकार ब्लौटर और भी ना जाने कितनी तरह की चीज़ें सजी रहती थीं ! जो मुझे सबसे अधिक आकर्षित करता वह था एक हथौड़ा ! उसका उपयोग मेरे सामने बाबूजी ने कभी किया या नहीं मुझे याद नहीं है लेकिन बड़े होने पर फिल्मों में ‘ऑर्डर-ऑर्डर’ कर फ़िल्मी जजों को मेज़ पर ठोकते हुए खूब देखा है ! बीच-बीच में जब मैं बोर हो जाती तो कुर्सी बाबूजी के कोर्ट रूम के दरवाज़े के पास खींच परदे की आड़ से मुकदमें की कार्यवाही को बड़े ध्यान से देखती रहती ! वकीलों की धुआँधार बहस, वादी प्रतिवादियों से उनका क्रॉस एग्जामिनेशन, गवाहों के बयान सब कुछ मुझे बड़ा दिलचस्प लगता ! बीच-बीच में अगर बहस पटरी से उतरती दिखती तो अनुशासन में रहने के लिये और मुद्दे से ना भटकने के लिये बाबूजी सख्त लहजे में सबको चेतावनी देते और फ़ौरन कोर्ट रूम में सन्नाटा छा जाता ! तब मुझे अपने बाबूजी पर बहुत अभिमान होता था ! बड़े-बड़े लोग उनसे डरते थे और उनका बहुत आदर करते थे ! तभी से मेरे मन में बड़े होकर जज बनने की ख्वाहिश ने जन्म लिया ! जज का कार्य बहुत ही ईमानदारी और जिम्मेदारी वाला होता है ! सच्चे को न्याय मिले और अपराधी को सज़ा इससे बढ़ कर और सामाजिक न्याय क्या हो सकता है ! मैंने सारी-सारी रात बाबूजी को एकाग्र होकर जजमेंट्स लिखते देखा है ! जब घर में सभी सदस्य आराम से नींद के आगोश में लुढ़के होते बाबूजी मोटी-मोटी क़ानून की किताबों में मुकदमें से जुड़े मुद्दों के सन्दर्भ ढूँढते और दत्तचित्त हो शांत मन से उनका तार्किक विश्लेषण कर अपना फैसला लिखते ! सुबह जब हम जागते देखते बाबूजी अपने काम में लगे हुए हैं ! बाबूजी का वह रूप हमेशा से मेरे लिये बहुत प्रेरक रहा है ! मेरे मन में भी तब से यही सपना आकार ले रहा था कि मैं भी बड़ी होकर जज बनूँगी और किसीके प्रति अन्याय नहीं होने दूँगी !
लेकिन वह कहते हैं ना ‘अपने मन कछु और है कर्ता के कछु और’ ! चाहने मात्र से ही भला क्या होता है ! अपने सपने को साकार करने के लिये मैंने ग्रेजुएशन के बाद उज्जैन में विक्रम यूनीवर्सिटी में एम ए इंग्लिश लिटरेचर में और माधव कॉलेज की ईवनिंग क्लासेज़ में एल एल बी में दोनों में एक साथ एडमीशन लिया ! दोनों कोर्सेज़ में मेरी पढाई बढ़िया चल रही थी ! मुझे पढ़ाने वाले मेरे प्रोफेसर्स मेरी प्रगति से बहुत संतुष्ट थे और मुझे बहुत प्रोत्साहित भी करते थे ! लेकिन उन्हीं दिनों मेरे विवाह के लिये भी कई जगह बात चल रही थी ! बाबूजी रिटायर हो चुके थे ! ससुराल वालों के इस आश्वासन के साथ कि विवाह के बाद मेरी पढ़ाई जारी रखी जायेगी मुझे शादी का जोड़ा पहना कर विवाह मंडप में बैठा दिया गया ! लेकिन उसके बाद मेरी पढ़ाई में जो ब्रेक लगा वह स्थाई हो गया ! इसके लिये किसीको दोष देना अनुचित होगा ! शायद परिस्थितियाँ ही ऐसी विषम थीं कि मेरी पढ़ाई को जारी रख पाना संभव नहीं था ! मेरी माँ और बाबूजी भी बहुत दुखी हुए ! हालात इस तरह से यू टर्न ले लेंगे यह कल्पना तो उन्होंने भी नहीं की थी ! एक न्यायाधीश की बेटी, और हर अन्याय के खिलाफ लड़ने का संकल्प धारण करने वाली लड़की अपने प्रति होने वाले इस अन्याय का प्रतिकार नहीं कर पाई और जीवन भर अपनी हार का यह ज़ख्म अपने सीने में छिपाये रही ! यह सपना मेरे दिल के इतना करीब था कि आज भी मैं हर बात को, हर घटना को, हर किस्से को उसी नज़र से देखती हूँ कि अगर मेरे बाबूजी के कोर्ट रूम में यह मुकदमा चल रहा होता तो इसका क्या स्वरुप होता और वे क्या करते ! स्वयं को कभी जज के रूप में, तो कभी वकील के रूप में, कभी वादी प्रतिवादी के रूप में तो कभी गवाह के रूप में पाती हूँ और उसी आधार पर हर बात का विश्लेषण करने लगती हूँ ! मैं वास्तविक जीवन में तो जज नहीं बन पाई लेकिन आज भी हर पल हर क्षण मेरे अंदर मेरा सपना साँस लेता है शायद इसीलिये ना तो मैंने कभी किसीके प्रति खुद अन्याय किया ना होते हुए देख सकी और शायद अपने सपने को इसी रूप में प्रतिफलित होते देख मैं सुख से जी पा रही हूँ !


14 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

्साधना जी रेखा जी ने बहुत ही सार्थक कार्य किया है हम सब को एक बार फिर अतीत से कुछ पल चुराने का मौका दिया है ताकि एक बार फिर हम अपने अपने सपनों की कसक को याद कर सकें और हो सकता है किसी के सपने से कोई दूसरा प्रेरित हो जाये या समझ जाये कि जब सपना टूटता है तो कैसा लगता है और वो वैसा कदम ना उठाये जिससे सपने देखने वाले को तकलीफ़ हो…………बस यही कह सकती हूँ हमारे मन कुछ और होता है और विधाता के कुछ और …………वो जो करता है सबसे अच्छा करता है बस इसी मूलमंत्र के साथ ज़िन्दगी आराम से गुज़र जाती है वरना वक्त और हालात मजबूर कर देते हैं और किसी भी कसक को उम्र भर ढोकर तो नही चला जा सकता ना ………………इसलिये करने पडते हैं ज़िन्दगी से समझौते और शायद समझौतों का दूसरा नाम ही ज़िन्दगी है।

Dinesh pareek ने कहा…

ab to mera bhi man karta hai ki ek wo jo mera pura na ho saka wo apko bheju

रश्मि प्रभा... ने कहा…

प्रत्यक्ष ही तो सिर्फ सत्य नहीं होता न...आपके सपने आज भी आपकी लेखनी,आपकी हर सोच में अपना दायित्व निभाते हैं- साधना जी,आपके सपने समंदर हो चले हैं . आपके सपनों की अनदेखी जीत मुझे दिखाई देती है .... निष्पक्ष विश्लेषण .
रेखा जी को शुक्रिया इससे शुरुआत करने के लिए

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

आँखें नम हो गई.... सपने अक्सर ऐसे ही किसी मोड़ पर आकर दूसरा रास्ता पकड़ लेते हैं....

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

साधना जी आपने तो कोर्ट में जाकर और अपने पापा को देख कर ये सपना देखा था लेकिन मैंने तो अपने मन से ही देखा था और जो आज तक अधूरा है.

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

भले ही आप वकील नहीं बनी हों या फिर जज .... लेकिन निष्पक्ष फैसले आज भी आप लेती हैं ... ज्वलंत मुद्दों पर आपकी लेखनी बेबाक चलती है ... अपने आप में आप जज की ही भूमिका में रहती हैं ....

पर फिर भी सपने टूटने का दर्द तो होता ही है ...

shikha varshney ने कहा…

साधना जी ! आपका सपना बेशक मूर्त रूप न ले सका. परन्तु वह जीवित तो है और सार्थक भी.आपकी निष्पक्ष सोचने और निर्णय करने की क्षमता जीवन के हर क्षेत्र में प्रभावी और सहायक होती है हर एक के लिए.

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

वह सपना समाप्त कहाँ हुआ साधना जी ,
आपके अंतर्मन में निरंतर सक्रिय है .आपको सचेत रखे है न्याय के प्रति!

Anju (Anu) Chaudhary ने कहा…

रेखा दी ...आपने सबके अधूरे सपने खोलने का जो जिम्मा उठाया हैं ...उसका रूप कब और कहाँ परिवर्तित हो जाए ....पता नहीं


साधना जी के सपने को पढ़ने के बाद उनके अंदर का छिपा दर्द दिखाई दिया

Rajesh Kumari ने कहा…

साधना जी का अधूरा सपना पढ़ा साधना जी उस वक़्त यही होता था बेटियों के सपने माता पिता पूर्ण नहीं कर पाते थे और माता पिता के सपने बेटा पूर्ण नहीं कर पाता था आज परिस्थिति अलग है और यही सोच कर हम संतुष्ट हैं की हमने अपने बच्चों के स्वप्न पूर्ण किये उसमे भी आत्म संतुष्टि है

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

अंजू ये एक दिल की कसक है , जो आज कम लेकिन हमारे ज़माने में अधिक हुआ करती थी , जहाँ बहार जाकर पढ़ने पर प्रतिबन्ध , प्रोफेशनल कोर्स कम थे . वही सब सपने सबके दिल में किसी न किसी तरह से आज भी कसक रहे हैं

Sadhana Vaid ने कहा…

रेखा जी आभारी हूँ आपकी कि जो दर्द मैंने किसी हमदर्द के बिना इतने सालों तक अपने ही दिल में दबा कर रखा आपके कुरेदने से छलक कर बाहर आ गया और आज मेरे दुःख से विचलित हो कोमलता से सहलाते हुए इतने सारे मृदु वचन अपनी सुकुमार उँगलियों से मेरे आँसू पोंछने के लिये तत्पर हो उठे ! आप सभीका तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया ! आज अपने मन का चट्टान सा भारी बोझ सहसा फूल सा हल्का हो गया लगता है !

Asha Lata Saxena ने कहा…

सपने सभी देखते हैं पर सभी सच हों जरूरी नहीं और अधूरे सपने काँटों की तरह जीवन भर सालते रहते हैं और अक्सर असंतोष का कारण बन जाते है पर तुम्हारे जैसे समझदार लोग सकारात्मक रुख अपनाते है इससे अच्छी बात कोईहो ही नहीं सकती |आज ऐसे ही सकारात्मक सोच की आवश्यकता है |
आशा

संगीता पुरी ने कहा…

सपने बहुत कम लोगों के पूरे होते हैं .. एक रास्‍ता बंद होता है तो दूसरा निकल आता है .. इसी बहाने मन के भावों को अभिव्‍यक्ति देने का मौका मिला .. हम सभी आपके अनुभव से परिचित हुए।